Article: व्यक्तित्व की पूर्णता ईश्वरीय गुण

क्या हम जो चाहते हैं, वही दूसरे भी चाह सकते हैं  जिसे हम जीवन में सबसे ज्यादा प्यार करते हैं, क्या वह भी हमें ही सबसे ज्यादा प्यार करता है  यह प्रश्न आज अन्तर्मन में इसलिए उठा क्योंकि किसी मित्र द्वारा वैराग्य शतक के रचयिता सम्राट भर्तृहरि के जीवन की एक घटना पढ़ी और चेतना में गीता के माध्यम से दिए गए योगिराज भगवान श्रीकृष्ण का उपदेश गूंज उठे—पार्थ! इस संसार में केवल मैं ही सबके कुशलक्षेम का ध्यान रखता हूं, संसार में सभी के अपने-अपने हित होते हैं। एक कवि ने जीवन के इसी सत्य को निम्न दोहे में व्यक्त किया है :-

सबके अपने स्वार्थ हैं,
सबकी अपनी प्रीत।
सब चाहें अपना भला,
सब के अपने मीत।

मां अपने पुत्र को सबसे अधिक प्यार करती है, तो पुत्र अपनी पत्नी को सबसे अधिक प्यार करता है और वहीं पत्नी अपनी मां को सबसे ज्यादा प्यार करती है, तो पत्नी की मां अपने पति को सबसे अधिक प्यार करती है। यही जीवन का सत्य है, जो राजा भर्तृहरि की कहानी में गुंथा हुआ है और जो वैराग्य शतक की रचना का मूल कारण बना है। वह कथा इस प्रकार है

पुराने जमाने में उज्जयिनी के राजा हुए भर्तृहरि, जो विक्रमादित्य के बड़े भाई थे। वे कवि भी थे। उनकी पत्नी अत्यंत रूपवती थी। भर्तृहरि ने स्त्री के सौंदर्य और उसके बिना जीवन के सूनेपन पर सौ श्लोक लिखे हैं, जो संस्कृत साहित्य में शृंगार शतक के नाम से प्रसिद्ध हैं। उन्हीं के राज्य में एक ब्राह्मण भी रहता था, जिसने अपनी नि:स्वार्थ पूजा से देवता को प्रसन्न कर लिया। उसे देवता ने वरदान के रूप में 'अमर फल देकर कहा कि इसे खाकर तुम लंबे समय तक युवा रहोगे।

ब्राह्मण ने सोचा कि मैं तो भिक्षा मांग कर जीवन बिताता हूं, मुझे लंबे समय तक जी कर क्या करना है  हमारे राजा बहुत अच्छे हैं, मैं उन्हें यह फल दे देता हूं। वे लंबे समय तक जिएंगे तो प्रजा भी लंबे समय तक सुखी रहेगी। यह सोचकर उनसे सारी बात राजा को बताते हुए वह अमर फल उन्हें दे दिया। 

राजा ने मन ही मन सोचा कि यह फल मैं अपनी पत्नी को दे देता हूं। वह ज्यादा दिन युवा रहेगी, तो मुझे ज्यादा दिनों तक उस के साहचर्य का लाभ मिलेगा। अगर मैंने फल खाया, तो वह मुझ से पहले ही मर जाएगी और उसके वियोग में मैं भी नहीं जी सकूंगा, अत: राजा ने वह फल अपनी पत्नी को दे दिया।

लेकिन, रानी तो नगर के कोतवाल से प्यार करती थी। अमर फल उसको देते हुए रानी ने कहा कि 'इसे खा लेना, इससे तुम लंबी आयु प्राप्त करोगे और मुझे सदा प्रसन्न करते रहोगे। 

रानी से फल लेकर कोतवाल जब महल से बाहर निकला तो सोचने लगा कि रानी के साथ तो मुझे धन-दौलत के लिए झूठ-मूठ ही प्रेम का नाटक करना पड़ता है और यह 'अमर फल खाकर मैं भी ज्यादा जीकर क्या करूंगा  इसे मैं अपनी परम मित्र राजनर्तकी को दे देता हूं, क्योंकि वह मुझे बहुत प्यार करती है। यदि वह सदा युवा रहेगी तो दूसरों को भी सुख दे पाएगी। यही सोचकर कोतवाल ने वह फल अपनी उस नर्तकी मित्र को दे दिया।

राजनर्तकी ने कोई उत्तर नहीं दिया और चुपचाप वह 'अमर फल अपने पास रख लिया। कोतवाल के जाने के बाद उसने सोचा कि कौन मूर्ख मेरे जैसा पाप से भरा जीवन लंबा जीना चाहेगा  हमारे देश का राजा बहुत ही अच्छा है, उसे ही लंबा जीवन जीना चाहिए। यह सोच कर नर्तकी ने राजा से मिलने का समय लिया और एकांत में उस फल की महिमा सुना कर अमर फल राजा को दे दिया।

 राजा भर्तृहरि फल को देखते ही पहचान गए और पूछताछ करने से जब उन्हें पूरी बात मालूम हुई, तो उन्हें वैराग्य हो गया। भर्तृहरि राजपाट छोड़ कर जंगल में चले गए। वहीं उन्होंने वैराग्य पर फिर से सौ श्लोक लिखे, जो वैराग्य शतक के नाम से संस्कृत साहित्य में आज भी प्रसिद्ध हैं।

यही इस संसार की वास्तविकता है। एक व्यक्ति किसी अन्य से प्रेम करता है और चाहता है कि वह व्यक्ति भी उसे उतना ही प्रेम करे, परंतु विडंबना यह कि वह दूसरा व्यक्ति तो किसी अन्य से ही प्रेम करता है। इसका कारण यह है कि संसार के सभी प्राणी अपूर्ण हैं। सब में कुछ न कुछ कमी है। सिर्फ एक ईश्वर ही पूर्ण है। 
एक वही है, जो हर जीव से उतना ही प्रेम करता है, जितना जीव उससे करता है। बस हमीं उससे सच्चा प्रेम नहीं करते। गीता में श्रीकृष्ण ने यही समझाया है कि जो मुझ से प्रेम करता है, मैं उसका योगक्षेम वहन करता हूं अर्थात् उनके पास जिस वस्तु की कमी है, वह दे देता हूं और हर प्रकार से सबकी रक्षा करता हूं।

इस कथा से हमें एक सत्य का ज्ञान हो जाता है कि संसार में कोई भी व्यक्ति पूर्ण नहीं होता, सभी में कुछ न कुछ कमी होती ही है, क्योंकि सबके संस्कार और परिवेश एक नहीं होते, हो भी नहीं सकते। अंग्रेज़ी के दार्शनिक कवि शेक्सपीयर ने कहा है संसार में कुछ भी अच्छा या बुरा नहीं होता, हमारी सोच ही उसे अच्छा या बुरा बनाती है। वास्तविकता भी तो यही है कि हम अपनी ही सोच के दायरे में कोल्हू के बैल की तरह घूमते रहते हैं और अपनी ही सोच को अंतिम और सबकी मानकर यह चाहते हैं कि हर व्यक्ति हमारे जैसा ही सोचे। सच मानिए, यही सोच हमारे तनाव और दु:खों का कारण बन जाती है।

योगेन्द्र नाथ शर्मा अरुण 

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